सुब्रत रॉय की रहस्यमय दुनिया के इर्दगिर्द कसता जा रहा है फंदा
हाल ही में एक घोषणा की वजह से दुनिया चौंक उठी. सहारा इंडिया फाइनेंशियल कॉर्पोरेशन लि. (एसआइ-एफसीएल) के जारी किए एक अखबारी विज्ञापन में कहा गया था कि कंपनी के पास जून, 2011 तक 73,000 करोड़ रु. की जमा इकट्ठी हो चुकी थीं. किसी गैरबैंकिंग संस्थान के लिए यह असामान्य रूप से बड़ी रकम है, जिससे पता चलता है कि कैसे सहारा सुप्रीमो सुब्रत रॉय बड़े अधिग्रहणों में पैसा लगाते आए हैं
इनमें हाल ही में विजय माल्या के नियंत्रण वाली फार्मूला वन टीम पर 500 करोड़ रु. मूल्य का 42.5 प्रतिशत दांव लगाना शामिल है. पिछले साल के अंत में रॉय ने 3,250 करोड़ रु. लगाकर लंदन का नामी होटल ग्रॉसवेनर हाउस खरीद लिया था. रॉय का कहना है, ”पैसा कोई समस्या नहीं है. वह तो मैं कल सुबह 10 बजे दे सकता हूं. सहारा परिवार अंदर से मजबूत है. वह अपने रास्ते की सभी बाधाओं को पार कर लेगा.”
फौरी तौर पर दो ‘बाधाएं’ हैं. सहारा समूह ने भारतीय रिजर्व बैंक की निर्धारित 30 जून, 2015 की समयसीमा से चार साल पहले यानी 31 दिसंबर, 2011 तक 11,500 करोड़ रु. की अपनी देनदारियां चुकाने का वादा किया है. दूसरी एक और ‘बाधा’ है. 10 अक्तूबर को प्रतिभूति अपीली पंचाट ने अपने एक कड़े आदेश में रॉय की दो कंपनियों सहारा कमॉडिटी सर्विसेज कॉर्पोरव्शन लि. (एससीएससीएल, जिसका नाम पहले सहारा इंडिया रियल एस्टेट कॉर्पोरव्शन लि. होता था) और सहारा हाउसिंग इन्वेस्टमेंट कॉर्पोरेशन (एसएचआइसीएल) से कहा है कि उन्हें अगले छह हफ्ते के भीतर वैकल्पिक रूप से पूरी तरह परिवर्तनीय डिबेंचरों (ओएफसीडी) के जरिए उगाहे गए 24,029 करोड़ रु. वापस करने होंगे.
इस तरह रॉय को 31 दिसंबर तक कुल 35,000 करोड़ रु. से ज्यादा की रकम वापस करनी होगी. लेकिन ऐसा तभी होगा, जब रॉय उक्त आदेश का पालन करेंगे. उन्होंने पंचाट के आदेश को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देने का फैसला किया है, लेकिन रिजर्व बैंक के आदेश वाली रकम वापस करने के लिए वे वचनबद्ध हैं.
पंचाट का आदेश नवंबर, 2010 को वित्तीय बाजार की नियामक सेबी के फैसले के बाद आया, जिसने सहारा समूह की दो कंपनियों पर ओएफसीडीएस के जरिए लोगों से पैसा उगाहने का आरोप लगाया. उसमें कहा गया है कि पैसों यह उगाही निवेशकों की सुरक्षा के लिए बने नियमों का, जो इस तरह के सार्वजनिक मुद्दों को नियंत्रित करते हैं, खुलासा किए बिना की गई. रॉय इसके विरोध में कहते हैं, ”सहारा समूह के पास 30 जून, 2010 तक 1,09,224 करोड़ रु. की संपत्तियां थीं.
इनमें तरल निवेश, नगदी और बैंक में जमा राशि, सावधि जमा राशियां (19,456 करोड़ रु.); कर्जदार, कर्ज व अग्रिम राशि, आयकर रिफंड, अन्य मौजूदा पूंजी (7,629 करोड़ रु.), जमीन, निर्माण, चल रहा काम, खत्म हो चुका स्टॉक और सावधि पूंजी (82,139 करोड़ रु.) शामिल हैं. पैसा चुकाना कोई समस्या नहीं है. समस्या यह है कि दो भिन्न तत्वों को एक ही श्रेणी में नहीं रखा जा सकता. पंचाट का कदम तर्कसंगत नहीं है.”
रॉय की रहस्यमय दुनिया के इर्दगिर्द फंदा कसता जा रहा है. रिजर्व बैंक, सेबी, प्रवर्तन निदेशालय से लेकर कंपनी मामलों का मंत्रालय सरीखे कई नियामकों के बीच फंसकर वे सभी पर निशाना साध रहे हैं और भविष्य की योजना बनाते हुए उनसे लोहा ले रहे हैं. मुंबई में 2002 में 115 करोड़ रु. से खरीदे गए 223 कमरों वाले उनके होटल सहारा स्टार की निजी लिफ्ट के बाहर एक वर्दीधारी रसोइया उनका इंतजार कर रहा है. कूटभाषा वाला कार्ड स्पर्श कराकर आप उनके सफव्द रंग से रंगे विशेष कक्ष में पहुंचते हैं, जहां से एयरपोर्ट का ज्यादातर हिस्सा नजर आता है.
स्थिति माकूल है लेकिन रॉय की परेशानियां बरकरार हैं. जून, 2008 में रिजर्व बैंक ने एसआइएफसीएल से कहा कि वह नई जमा राशियां स्वीकार न करे और सात वर्षों में जनता की 20,000 करोड़ रु. की जमा रकम को चुकाए. पूरी तरह लगाए गए प्रतिबंध में रिजर्व बैंक ने 2011 के बाद परिपक्व होने वाली नई जमा राशियां स्वीकार करने पर रोक लगा दी. आदेश के मुताबिक 30 जून, 2011 तक कंपनी पर 9,000 करोड़ रु. से ज्यादा की देनदारी नहीं होनी चाहिए.
11 जुलाई, 2008 को सहारा इंडिया की ओर से प्रकाशित विवरण पत्र में दिखाया गया था कि एसआइएफसीएल ने 1987 में अपनी शुरुआत के बाद से जमा राशियों के रूप में 59,076.26 करोड़ रु.(ब्याज समेत) जुटाए और जमाकर्ताओं को 30 जून, 2008 तक 41,563.06 करोड़ रु. (ब्याज समेत) वापस किए. सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी की ओर से संकलित आंकड़ों के मुताबिक मार्च, 2009 तक जमाकर्ताओं के प्रति देनदारी (जिसमें ब्याज भी शामिल था) 17,640 करोड़ रु. थी. मार्च, 2010 के अंत तक इसकी कुल देनदारी 13,235 करोड़ रु. थी. मार्च, 2010 के बाद का आंकड़ा उपलब्ध नहीं है, लेकिन रिजर्व बैंक के करीबी सूत्रों का कहना है कि देनदारी घटकर 9,000 करोड़ रु. से 11,500 करोड़ रु. के बीच रह गई है.
रॉय कहते हैं, भुगतान व्यवस्थित तरीके से करना होती है. ”इसलिए हम तय कार्यक्रम के मुताबिक भुगतान करेंगे, जिसके बारे में जानकारी लखनऊ में सहारा के मुख्यालय को भेज दी गई है. हम बहुत सुगठित तरीके से काम करते हैं. मुख्यालय को अपनी 3,800 शाखाओं को सलाह देनी होती है और इस तरह से भुगतान किए जाते हैं (देखें बातचीत).” नगदी भले ही उनके लिए बड़ी चिंता न हो, लेकिन नवंबर, 2010 में सेबी के अंतरिम आदेश के तहत पूंजी जुटाने की उनकी योजनाओं का गला घोंटने का सरकार की कोशिश जरूर चिंता का विषय है.
इस आदेश से प्रभावित होने वाली उनकी दो कंपनियों में से एक, एसएचआइसीएल में उनकी मौजूदा पूंजी, नगदी और बैंक में जमा राशि करीब 725 करोड़ रु. है, जबकि एससीएससीएल में उनकी पूंजी, नगदी और बैंक में जमा राशि 4,266 करोड़ रु. है. सहारा समूह ने पिछले 10 वर्षों में आयकर और सेवा कर के रूप में कु ल 2,757 करोड़ रु. चुकाए हैं, इस तरह यह टैक्स चुकाने के हिसाब से एक समर्पित समूह बन गया है.
फिर रिजर्व बैंक ने किस वजह से इसे निशाना बनाया. इसके तार बहुत उलझे हैं. आरएनबीसी के तौर पर एसआइएफसीएल ने दैनिक जमा, आवर्ती जमा और सावधि जमा के रूप में आम लोगों का पैसा स्वीकार किया. रिजर्व बैंक और सेबी ने एसआइएफसीएल पर निशाना साधा (देखें बाक्स), क्योंकि उन्हें लगा कि वह कथित तौर पर काले धन को सफेद बनाने का काम कर रही है. अपना नाम गुप्त रखना चाह रहे एक बड़े बैंकर का कहना है, ”यह कैसे हो सकता है कि सुब्रत रॉय आपकी रजामंदी के बिना इतने वर्षों तक एक समांतर पैराबैंकिंग कंपनी चलाते रहे और अचानक सब कु छ बदल गया. यहां एक तरह से किसी को निशाना बनाए जाने की बात है, लेकिन उनके खिलाफ कार्रवाई के बारे में कोई अटकल लगाने के लिए मैं तैयार नहीं हूं.”
मई, 2004 के चुनावों के बाद जब यूपीए सत्ता में आया तो एक बड़े सरकारी पदाधिकारी और अब एक महत्वपूर्ण प्रदेश के राज्यपाल से कहा गया कि वे रॉय और सहारा परिवार की गतिविधियों की फाइल तैयार करें. यह फाइल बहुत गहन थी और उसने रॉय के साम्राज्य यानी उनके विशाल पैराबैंकिंग धंधे पर, जो उनके अपार खजाने का स्त्रोत था, करारी चोट की. अपने नोट में रिजर्व बैंक ने निर्देश दिया कि सहारा कव्वल सरकारी प्रतिभूतियों और पूरी तरह से सुरक्षित पीएसयू बैंक जमा योजनाओं में ही निवेश कर सकता है.
इसके पीछे उद्देश्य सहारा के कारोबार को ठप करना था. सरकार को इस तरह का कदम क्यों उठाना पड़ा? इंडिया टुडे ने जब इस बारे में सवाल किया, तो रिजर्व बैंक ने कोई टिप्पणी करने से इनकार कर दिया, लेकिन यह जरूर कहा कि वह एसआइएफसीएल के विज्ञापन की जांच कर रहा है.
अगर रिजर्व बैंक की ओर से सहारा को निशाना बनाया जाना पहली चोट थी तो रॉय के खिलाफ सेबी की दंडात्मक कार्रवाई दूसरी चोट है (देखें बॉक्स). आइपीओ जारी करने का मन बना रही सहारा समूह की कंपनी सहारा प्राइम सिटी लिमिटेड ने 30 सितंबर, 2009 को सेबी को दी अपनी प्रस्तावना में अपने समूह के बारे में सूचना दी थी. सेबी ने घोषणाओं को नाकाफी मानते हुए नियमों के मुताबिक सहारा की कुछ कंपनियों के बारे में सूचना मांगी. इसके बाद शब्दों की जंग में अतिरिक्त सॉलीसिटर-जनरल मोहन पारासरन ने इस मामले पर अपनी राय में कहा, ”मेरी समझ में सहारा समूह जैसी गैर-सूचीबद्ध कंपनियां, जो स्वयं को सूचीबद्ध कराना नहीं चाहती हैं, सेबी के अधिकार क्षेत्र में नहीं आती हैं.” सहारा ने पारासरन की राय को आधार बनाते हुए कहा कि यह मामला सेबी के अधिकार क्षेत्र में नहीं आता है क्योंकि कंपनी कंपनी मामलों के मंत्रालय और कंपनी रजिस्ट्रार के अधिकार क्षेत्र में आती है.
जब सेबी ने अपने आदेश का तुरंत पालन करने के लिए कहा तो सहारा ने 31 मई, 2010 के दिनांक वाले पत्र के जरिए कंपनी मामलों के मंत्रालय को एक प्रतिवेदन भेजा, जिसमें उससे स्पष्ट करने को कहा गया कि उनकी कंपनी कंपनी मामलों के मंत्रालय के अधिकार क्षेत्र में आती है या सेबी के. 17 जून, 2010 को मंत्रालय ने सहारा को जानकारी दी कि मामले की जांच की जा रही है.
फिर उसने मामले को कानून एवं न्याय मंत्रालय के पास भेज दिया, जहां पारासरन ने सरकार के कानून अधिकारी के तौर पर पाया कि गैर-सूचीबद्ध कंपनियां सेबी के अधिकार क्षेत्र में नहीं आती हैं. कानून मंत्रालय ने भी इसी नजरिए के पक्ष में अपनी राय दी, जिसे 8 फरवरी, 2011 को तत्कालीन कानून सचिव के अलावा तत्कालीन कानून मंत्री एम. वीरप्पा मोइली ने भी मंजूरी दे दी.
इसके बावजूद सेबी को कोई फर्क नहीं पड़ा. नवंबर, 2010 में उसने एक अंतरिम आदेश में सहारा समूह की कंपनियों एससीएससीएल और एसएचआइसीएल को कारण बताओ नोटिस जारी कर दिए, जिसके जरिए उन्हें कंपनी रजिस्ट्रार को दाखिल किए गए क्रमशः 12 मार्च, 2008 और 6 अक्तूबर, 2009 के दिनांक वाले रेड हेरिंग प्रास्पेक्टस के तहत जनता से पैसा उगाहने से रोक दिया गया. ऐसा उन्होंने 1956 के कंपनी कानून की धारा 60बी के तहत किया.
उन कंपनियों को यह भी निर्देश दिया गया कि वे जनता को अपने इक्विटी शेयर/ओएफसीडीएस या किसी अन्य प्रतिभूति की भी पेशकश न करें. और फिर, सेबी ने निर्देश दिया कि रॉय, वंदना भार्गव, रवि शंकर दुबे और अशोक रॉय चौधरी सरीखे जिन लोगों का नाम प्रमोटर के तौर पर दिया गया है, उन्हें प्रास्पेक्टस या कोई अन्य दस्तावेज लाने या जनता से पैसा उगाहने वाला कोई भी विज्ञापन जारी करने से रोका जाए.
15 जुलाई, 2011 को पंचाट को फैसले के लिए मामला भेजते हुए सुप्रीम कोर्ट ने निर्देश दिया कि कंपनी मामलों के मंत्रालय को इस मामले में एक पक्ष बनाया जाए. मंत्रालय ने प्रतिवेदकों को अपना जवाबी शपथ-पत्र दाखिल करने को कहा. इसका पालन करते हुए मंत्रालय ने 26 अगस्त, 2011 और सहारा ने 30 अगस्त, 2011 को मेमो ऑफ अपील के प्रति अपना जवाबी शपथ-पत्र दाखिल किया. लेकिन अपने जवाबी शपथ पत्र में मंत्रालय ने एकदम उलटा रुख अपनाते हुए कहा कि इस मामले में सेबी को फैसला लेने का अधिकार है.
उसने कानून मंत्रालय की राय की भी अनदेखी कर दी. उसने लखनऊ हाइकोर्ट में अपने पहले के रुख से भी अलग रुख ले लिया. तब सहारा ने 30 अगस्त, 2011 को मंत्रालय को नया प्रतिवेदन भेजा. अब कॉर्पोरेट मामलों के मंत्री मोइली ने 2 सितंबर, 2011 के अपने नोट में कहा है, ”इस चरण में कंपनी मामलों के सचिव को यह विचार करना है कि यह मामला क्या दोबारा कानून मंत्रालय को भेजा जा सकता है.”
सबसे तगड़ा झ्टका सुप्रीम कोर्ट की ओर से आया, जिसने फैसला सुनाया, ”हमारा यह मत है कि ओएफसीडी के सवाल पर सेबी के फैसले की जरूरत है. सेबी को ही सुनवाई करने दी जाए और आदेश पारित करने दिया जाए.” सहारा को लखनऊ हाइकोर्ट के आदेश के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में विशेष अनुमति याचिका दाखिल करनी पड़ी, क्योंकि सेबी को सहारा समूह की ओर से पूरी जानकारी मुहैया कराने के बावजूद स्थगन के अंतरिम आदेश को मानने से इनकार कर दिया गया था. चीफ जस्टिस एस.एच. कापडिया की अगुआई वाली पीठ ने सहारा समूह को सेबी के खिलाफ पंचाट में जाने को कहा.
चूंकि पंचाट ने इस मामले में अपनी राय दे दी थी, इसलिए सहारा को फिर सुप्रीम कोर्ट की शरण लेनी पड़ी. इससे पहले 26 अगस्त, 2011 को पंचाट ने एसआइएचसीएल बनाम सेबी के मामले में अपने आदेश में कहा था, ”सहारा की ओर से जारी ओएफसीडी की पेशकश जनता को की गई थी…और इसलिए यह सेबी के अधिकार क्षेत्र में है. 50 से भी कम व्यक्तियों को की गई पेशकश दरअसल निजी प्लेसमेंट है.”
दिलचस्प बात यह है कि 28 अप्रैल, 2010 को संसद में अपने एक जवाब में सरकार ने कहा था, ”निजी तौर पर दिए गए डिबेंचर 1956 के कंपनी कानून के तहत जारी किए जाते हैं, जो कंपनी मामलों के मंत्रालय के अधिकार क्षेत्र में आते हैं.” साफ जाहिर है कि दो अलग-अलग कंपनियों के लिए दो अलग-अलग नियम हैं.
इंडिया टुडे ने जब सेबी से संपर्क किया तो उधर से कोई जवाब नहीं मिला. वह सिर्फ सहारा के खिलाफ अपने आदेश की प्रति देने के लिए ही राजी थी. बाजार से जुड़े एक व्यक्ति का कहना था, ”सुब्रत रॉय अपने दिखावे और दोस्तियों की कीमत चुका रहे हैं, लेकिन इसके पीछे भी शायद कोई न कोई कारण ही होगा, क्योंकि केंद्र सरकार की एजेंसियां पैसा उगाहने की रॉय की क्षमता के पीछे पड़ गई हैं.”
इस साल मार्च में ही रॉय ने हार्वर्ड में स्वप्रेरणा को लेकर एक भाषण दिया था. और इसी स्वप्रेरणा के चलते ही वे अपनी जिंदगी की सबसे मुश्किल लड़ाई लड़ रहे हैं. साभार : इंडिया टुडे
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